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आलू पराठा / नेहा नरुका

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एक ही पराठे को आधा-आधा खाते हुए
एक दूसरे के माथे को चूमते हुए
एक दूसरे की कविताओं से प्रेम करते हुए
नहीं बता पाई मैं तुम्हें वो घटना जो मुझे तुम्हें सालों से बतानी थी

मेरा मन बना रहा जैसे काठ की कटोरी
मेरी देह जैसे काठ की कटोरी में परोसी गई धनिए की हरी-हरी चटनी
उसके साथ तुम्हारे हाथ का बना आलू पराठा खाने के लिए मैं आई पिता-भाई-चाचा की पगड़ियों को हवा में उछाल कर..और तुम्हें लगा मैं बड़ी क्रान्तिकारी हूँ

क्योंकि तुम नहीं जानते थे वो जो मैं तुम्हें सालों से बताना चाहती थी
कि जब मैं पाँच में थी
तो मेरी एक सहेली हुआ करती थी
उसका नाम याद नहीं।
चलो, मैं उसका नाम 'क' रख देती हूँ
'क' के साथ मैं कन्याशाला में खेला करती थी सर्दियों की धूप में गुट्टे
कन्याशाला की मैडम सर्दियों की धूप में स्वेटर बुना करती थीं
कन्याशाला के सामने सरस्वती शिशु मन्दिर था, मैडम की दोनों बेटियाँ उसी में पढ़ा करती थीं

'क' से बातें हुआ करती थीं : धरती-जहान की, नगर-गाँव की, सुबह-शाम की
एक दिन मैंने उससे कहा — आलू पराठा खाने का बड़ा मन है
'क' बोली मैं अपनी मम्मी से कल बनवा के लाती हूँ

फिर मेरी बात 'ख' से हुई
उसने कहा : तुम उस तेलिन के घर का पराठा खाओगी ?
उसने कहा : वह नीच जात और हम ऊँची जाति वाले !
मैंने कहा : जात किसने बनाई ?
उसने कहा : भगवान ने ...
मेरी दादी ने बताया है, मेरी मम्मी ने बताया है, मेरे पुरखों ने बताया है ...

दूसरे दिन 'क' आई, उसके टिफ़िन में नरम-नरम आलू पराठे थे
मैंने कहा : मुझे भूख नहीं...
फिर धीरे से 'ख' बोली : इतने प्यार से लाई है खा लेते हैं अब
और वह फटाफट खाने लगी
पर मुझसे वो पराठा खाया नहीं जा रहा था
उस दिन से मुझे उल्टियों का रोग लग गया

इतने बेस्वाद आलू पराठे मैंने उस दिन से पहले और उस दिन के बाद कभी नहीं खाए
उस दिन के बाद 'क' मेरी सहेली नहीं रही

मैं सालों से तुम्हें 'क' की कहानी सुनाना चाहती हूँ ...
कि मैंने कैसे 'क' को खो दिया!
पर मैं तुम्हें नहीं खोना चाहती उस तरह जिस तरह मैंने 'क' को खो दिया

इस काठ की कटोरी में तुम अपना दण्ड डाल दो
मैं डाल रही हूँ अपना अपराधबोध
मुझे हमेशा तुम्हारे हाथ का आलू पराठा खाना है, मुझे हमेशा चूमना है रसोई में आलू पराठा सेंकता तुम्हारा गर्म हाथ ।
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