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09:07, 14 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= मनोज जैन 'मधुर'
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कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।
लौकिक सुख की
मनुहार लिए
जब-जब मन ने आना चाहा ।
बाँहों के झूले
में बैठा
सुख-दुख मिलकर गाना चाहा ।
परलोकी
चिन्त न ऐसे में
मन से मन का
उदार छल है ।
कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।
मन प्रेम पुजारी
जन्मों से
इसने संयम कब आराधा ।
फिर पुण्य-पाप
की बेड़ी क्यों
मिलने में बन जाती बाधा ।
पाथेय मिलन का
श्रेयस्कर
बाकी जो है सब
मृगजल है ।
कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।
</poem>