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<poem>
कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।

लौकिक सुख की
मनुहार लिए
जब-जब मन ने आना चाहा ।

बाँहों के झूले
में बैठा
सुख-दुख मिलकर गाना चाहा ।

परलोकी
चिन्त न ऐसे में
मन से मन का
उदार छल है ।

कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।

मन प्रेम पुजारी
जन्मों से
इसने संयम कब आराधा ।

फिर पुण्य-पाप
की बेड़ी क्यों
मिलने में बन जाती बाधा ।

पाथेय मिलन का
श्रेयस्कर
बाकी जो है सब
मृगजल है ।

कितना
कठोर, कितना कठोर,
कितना
कठोर जीवन-पल है ।
</poem>
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