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|अनुवादक=सुरेश सलिल
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<poem>
लम्बी अवधि तक रहा मैं विस्तीर्ण ड्योढ़ियों के नीचे
रंजित करते थे जिन्हें सागरीय सूर्य शताधिक रोशनियों से,
विशाल खम्भे जिनके ऊँचे और ठाठदार
सन्ध्या समय उन्हें बॅसाल्ट गुफ़ाओं की-सी शक़्ल दे देते थे
घुमड़ती गरज़ती ठठाती लहरें

प्रतिबिम्बित करतीं छवियाँ आसमानों की,
विपुल संगीत के अपने सारे सशक्त तार
एक तरह की भव्य और गूढ़ शैली में
मेरी आँखों में झलकते सूर्यास्त के रंगों से मिला देतीं

वहीं रहा मैं प्रशान्त इच्छाओं के मध्य...
वहीं रहा मैं प्रशान्त इच्छाओं के मध्य घिरा हुआ
नीले आसमानों, लहरों, झलमल रोशनियों और
नग्नप्राय दासों से, ख़ुशबुओं से तरबतर
ताड़ और नारियल के पत्रों से

जिन्होंने मुझे पंखा झला, और
जिनकी एकमात्र सार-सँभाल थी —
उस उदास गोपन को अनावरित करना
प्रेमविह्वल रखा मुझे जिसने ।

'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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