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बाग़ी / बाद्लेयर / सुरेश सलिल

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<poem>
गुस्से से आगबबूला एक फ़रिश्ता
यक्-ब-यक् प्रकट होता है किसी उक़ाब जैसा,
झपटकर पकड़ता है बाल नास्तिक के
मुट्ठी में कसकर, और झकझोरता हुआ
कहता है, ‘जानना होगा तुम्हें नियम-कानून !
(मैं तुम्हारी भलाई सोचनेवाला फ़रिश्ता हूँ, कान खोलकर सुन लो !)

‘गाँठ बाँध लो कि तुम्हें ग़रीबों, पापियों, अपंगों और
मन्दमति लोगों के साथ, बिना किसी हीले-हवाले के,
प्यार से — मोहब्बत से पेश आना है,
ताकि प्रभु यीशु जब प्रकट हों
अपने परोपकार, दयाभाव और प्रेम का प्रतीक गलीचा उनके स्वागत में तुम बिछा सको !
यही है प्रेम और मोहब्बत ! तुम्हारा हृदय पूरी तरह
पत्थर हो जाए; इससे पहले ही प्रभु की महिमा में
लौ लगाओ ! वही सच्चा सुख है, जिसकी ख़ुशियाँ टिकाऊ हैं ।’

और फ़रिश्ता, स्वाभाविक ही, अपने सबसे प्रियपात्र को
ताड़ना देता हुआ, पापी को बज्र — जैसे मुक्कों से यातना देता है, किन्तु —
गुस्ताख़ बाग़ी का हरदम एक ही जवाब : ‘नहीं, मैं नहीं ।’

'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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