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बुलडोजर / अरुण कमल

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<poem>
अब न तो पहिए चलते हैं, न जबड़े
पहियों के चारों तरफ़ दूब उग आई है और चींटियों के घर
जबड़ों के दाँत टूट चुके हैं और उन पर खेलती हैं गिलहरियाँ
अपने ज़माने में मैंने कितने ही झोंपड़े ढाहे, उजाड़ीं बस्तियाँ
दुनिया का सबसे सुस्त चाल वाला सबसे ख़ूँख़ार अस्त्र
एक बार एक बच्चा दब गया था पालने में सोया

मैं अक्सर सोचता — कोई मेरे सामने खड़ा क्यों नहीं होता
दस लोग भी आगे आ जाते तो मेरा इस्पात काँच हो जाता
बस, एक बार एक वीरांगना खड़ी हो गई थी निहत्थे
और मुझे रुकना पड़ा था असहाय निर्बल
पीछे मुड़ना मैं नहीं जानता पर मुझे लौटना पड़ा
तोड़ना कितना आसान है, बनाना कितना मुश्किल

अब चारों तरफ घनी रिहाइश है — इतने इतने लोग
और मैं बच्चों का खेल मैदान हूँ
उसी बस्ती के बीच अटका अजूबा
वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गए अपने ही वज़न से दबकर

काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता !
</poem>
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