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पहला ख़त / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
पहली मुहब्बत का
पहला ख़त तुम्हारा पढ़ा था
फिर कईयों का मिला पर
तुमसे आगे न बढ़ा था

कैसे यों कुतर-कुतर कर
लिखी थी अपना दिल
थी तब तुम छोटी फिर क्यों
तुम्हारा दिल बड़ा था

आज भी चलती है जब कभी
मुहब्बत की बात तो
उखड़ जाते हैं मेरे एहसास
जिन्हें दबाना पड़ा था

याद हैं वे दिन जब मुख़ालिफ़त में
अपनों का भी धड़ा था
तुम्हें पाने को मैं
जाति, बिरादरी, खानदान से लड़ा था

वो भूल तुम्हारी थी कि
था तुम्हारे हौसले का समर्पण
क्यों न कर सकी मेरी ज़िंदगी में पदार्पण?, खैर
मुन्तज़िर था आज भी हूँ
उसी मोड़ पे जहाँ तब खड़ा था

...पहली मुहब्बत का
पहला ख़त तुम्हारा पढ़ा था।
</poem>
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