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वे औरतें / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
मैं उन औरतों के प्रति
संवेदना रखता हूँ
जिन्हें मर्दों ने
दम भर मारा-पीटा किन्तु
मैं उन मर्दों को घृणा नहीं करता।

मेरी संवेदना और घृणा के मध्य
वे औरतें हैं
जिन्होंने मर्यादा और
संस्कार के फूल को मसला।

अधिकतर बूढ़ी औरतें
जो कोसती हैं
अपनी-अपनी बहुओं को जबकि
ब्याह के ससुराल जाने के बाद
वे औरतें पर्यायवाची रही
अपनी-अपनी अमर्यादित बहुओं की..

मैं उन नवयौवना बहुओं और
उनकी सासों के प्रति
संवेदना इसलिये रखता हूँ कि
उनका इलाज लात-घूसा कतई नहीं था बल्कि

उनका इलाज वे स्वयं हैं एक दूसरे के लिए।
</poem>
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