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उन्माद / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
यह कलियुग वह युग था त्रेता का
इस युग में राम नाम पर
साम्राज्य फैलता नेता का
सबरी, केवट, अनुसूया और अहिल्या
वोट बैंकों में तब्दील हुए
मानवता के खुले थे सब मन पिटक
अब उन्मादों से सील हुए।

सालों मज़हबी दंगे देखे
चुनावों में मत ख़ातिर मनचंगें देखे
उपकारों परोपकारों में लिपटे
मानिसिक कोढ़ी नंगे देखे
एक रावण था दुर्जन तब
अपवाद छोड़ कलियुग में रावण हैं सब
हृदय भरा भवतृष्णा से पर
हितकारी मृगतृष्णा से अटे हुए हैं लब
केंचुल अदल-बदल के
ज़हरीले लिप्सा के दांत धँसाते
हे मन ! सम्बंधों के हर-तन नील हुए
मानवता के खुले थे सब मन पिटक
अब उन्मादों से सील हुए।

कौन लिखेगा रामायण
दिखता नहीं कोई कर्तव्य-परायण
मंदिर तो बन जायेगा
क्या कलियुग में आएंगे नारायण?
सुब्हा मुझको इस युग के वाल्मीकियों पर
वे लिखेंगे रामायण उन्मादी लीकों पर
हे मन! अधर्म की बातें जोरों पर धार्मिक मत कील हुए
मानवता के खुले थे सब मन पिटक
अब उन्मादों से सील हुए।

रहा यही हाल तो सच कहता हूँ
लोकतंत्र के राज में
नेता रहेंगे समाज में-जैसे रहते कीटाणु खाज में
दान-दक्षिणा से क्या होगा
अश्रु विमुख हो लवण रहेगा जब प्याज में
हे मन ! परत-दर-परत व्यवहार अश्लील हुए
मानवता के खुले थे सब मन पिटक
अब उन्मादों से सील हुए।
</poem>
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