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<poem>
'''एक'''

उनका वाद्य यन्त्र है बुलडोज़र
उसकी ध्वनि उन्हें संगीत लगती है
(बजा दी सालों की — यही भाषा है न उनकी !)
ध्वंस उनकी संस्कृति है
सदियों पुरानी मज़बूत इमारतें भी ढहाते हैं
और बरसों पुरानी झुग्गियाँ भी ।

वे स्मृति से घृणा करते हैं
क्योंकि उसमें उनको अपना बर्बर और मतलबी चेहरा दिखता है
वे एक साफ़-सुथरा इतिहास बनाना चाहते हैं
लेकिन उसके पहले मिटाना चाहते हैं
वह सारा‌ निर्माण
जो मनुष्य की रचनात्मक मेधा का परिणाम है ।

जो उनके इस दावे को देता है चुनौती
कि उनके आने से पहले कुछ हुआ ही नहीं
और जो हुआ वह बस विधर्मियों का अत्याचार था ।

बामियान से बाबरी तक
बदलती पहचानों और बदलते निशानों के बावज़ूद
वे बिल्कुल एक हैं
पसीना-पसीना माथे-पीठ और मन पर ढोते हुए बुलडोज़र
चलाते हुए टैंक
और गाते हुए विध्वंस का बर्बर गीत ।
बुलडोज़र उनका वाद्य यन्त्र है ।

'''दो'''

वैसे तो वह एक विराट कल-पुर्ज़ा भर है
जिसे तोड़ने के लिए तैयार किया गया है ।
लेकिन उस पर बैठा कौन है ?
कौन उसे चला रहा है ?
और चलाने वाले को भी क्या कोई दे रहा है आदेश ?
और उस आदेश देने वाले को कौन आदेश दे रहा है ?
कहाँ से चलता है बुलडोज़र
इसी से तय होता है किस पर चलता है बुलडोज़र ।

जो जहाँगीरपुरी पर चला, वह नागपुर वाला बुलडोज़र था
वह‌ नाज़ी जर्मनी के कारख़ाने में बना था ।
उसे इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया था
लेकिन वहीं से उसे उठाकर लाए
हिटलर के भारतीय वारिस

अब वे उसे विकास का नया मॉडल बताते हैं ।
वे एक पवित्र धरती की रचना कर रहे हैं
जिसे ग़रीबों के ख़ून से धोकर शुद्ध किया जा रहा है ।

जहाँ-जहाँ उनका रथ जाता है, ख़ून की लकीर बनती जाती है ।
वे हत्या के उत्सव का एक अमूर्त चित्र बना रहे हैं ।

यह उनकी बुलडोज़र कला है ।

'''तीन'''

वे ख़ुद एक विराट बुलडोज़र हो चुके हैं
यही उनकी महत्वाकाँक्षा थी
लोग उनसे डरें
दूसरों को कुचल डालने की उनकी क्षमता पर भरोसा करें ।

उन्होंने बार-बार साबित किया है कि वे बेहद कार्यकुशल बुलडोज़र हैं
उन्हें मालूम है, क्या कुचलना है ।

उन्होंने न्याय को कुचला
उन्होंने विवेक को नष्ट किया
उन्होंने प्रेम और सद्भाव को बिल्कुल चिपटा कर डाला
उन्होंने बलात्कार से फेर ली आँखें
स्त्रियों पर अत्याचार उन्हें पसन्द नहीं
लेकिन कभी-कभी यह ज़रूरी हो जाता है.
जब लक्ष्य बड़ा हो तो छोटी-छोटी कुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं ।

उन्होंने बहुत सारे छोटे-छोटे बुलडोज़र भी बनाए ।
खड़ी कर दी बुलडोज़रों की सेना
जो अब इस मुल्क की सुरक्षा करती है
शत्रुओं का खोज-खोज कर संहार करती है
उनकी लिस्ट बनाती है
पहले रात के अन्धेरे में जो करती थी
वह‌ दिन के उजाले में करती है
वे इस मुल्क को एक महाविराट बुलडोज़र में बदलने की परियोजना चलाना चाहते हैं
मगर यह कमबख़्त सदियों पुराना, अपनी बेडौल स्मृतियों में हिलता-डुलता, हर किसी को बसेरा देने को आतुर मुल्क
एक विशाल पेड़ से अलग कुछ होने को तैयार नहीं ।
बुलडोज़र यहाँ हार जाते हैं, लेकिन उनका अहंकार भी बचा हुआ है, उनके वार भी जारी हैं ।
देखें कब तक बचा रहता है मुल्क
और कब तक बचे रहते हैं हम ।
</poem>
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