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'''डॉ0 जिवागो’ उपन्यास में शामिल एक कविता'''
मंच पर जब मैं आया , तो बन्द हो गया शोरखड़ा हुआ था मैं तब, उस दरवाज़े की ड्योढ़ जब प्रतिनाद मैंने प्रतिध्वनि को पकड़ा, जो था थी बेहद वाचाल बता रहा जो रही थी मुझे ये, कैसे गुज़रेगा जीवनकाल
धुँधलका रात का था तब, छाया था मुझपरटिकी हुई थीं हज़ारों , तीखी नज़रें जिसपर सम्भव हो यदि तुमसे, तो हे परमपिताइस विष-पात्र को तू , मुझ तक दे पहुँचा
मुझे पसन्द है तेरा , यह पक्का हठी इरादायह रोल निभाने अभिनय करने का , करता हूँ मैं वादापर अभी यहाँ पर खेल , चल रहा है कोई और इस बार छोड़ो मुझे अदाकार छोड़ दे मुझको, अभिनेता के बतौर
है पहले से तय यहाँ, खेल का सारा ख़ाकाइस राह का दिख रहा है, वो आख़िरी नाक़ामैं अकेला औ’ हूँ मैं यहाँ औ’ ढोंग में है सब कुछ डूबारंगभूमि नहीं है कोई ये , ज़िन्दगी है अजूबा
1946
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