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|रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल
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|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये तो विचार विमर्ष करते हैं।

यदि ऐसा न होता
मानव समाज और अपने आप से
ऊब जाने पर
इन दीवारों का सहारा लेता।

और जाकर अकेले में
उनसे बात न करता
और न ही अपनी व्यथा
इन पत्थरों की
दीवारों को सुनाकर
मन का बोझ हल्का करता।

क्योंकि उसे पता है
अगर ये पत्थर
सलाह न दे पाए
तो कम से कम
अपने बनकर
गुमराह तो नहीं करेंगे।

फिर क्यों न इस
बर्लिन दीवार को
बना मुद्दा विचार विमर्ष का
यह तर्क किया जाय
कि बुद्धिमान मानव है
या हैं ये टुकड़े पत्थरों के
जो इस दीवार के
ढ़हने से बने हैं।
</poem>
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