1,664 bytes added,
06:41, 18 जून 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल
|अनुवादक=
|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये इतिहास के पन्ने हैं।
यदि ऐसा न होता
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का,
कि उसमें पलती थी
एक ऐसी संस्कृति
जो आज के समाज में
एक मात्र स्वप्न
बनकर रह गई है।
यह चमकता सूरज
और चाँदनी से
जगमगाता ये आसमान
क्योंकर न तरस्ता
उस संस्कृति की
एक झलक के लिये
जो इन पत्थरों के रूप में
सजी हुई हैं
इतिहास के संग्रहालयों में।
तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
कर रहे हैं आगाह
कहीं आज का
हँसता गाता सुंदर संसार भी
आणविक हथियारों
के विस्फोटों में
आने वाले कल के
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा
न बनकर रह जाएं।
</poem>