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06:46, 18 जून 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल
|अनुवादक=
|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
पत्थर निर्जीव नहीं है
ये देख भी सकते हैं।
यदि ऐसा न होता
संसार में द्वार नाम की
चीज की उत्पत्ति न होती।
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आने वाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर जाने वाले मेहमान को।
साथ ही पहचान भी रखतें हैं
हर आने-जाने वाले की
इतना ही नहीं अपनी अंतः दृष्टि से
समय लेते हैं कौन है इनमें अपना
और कौन अपना बनकर टूटने आया है।
तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते पत्थरों के टुकड़ों ने
खोल दिये हैं द्वार
एक उस मंजिल प्राप्ति के,
जिसे शायद मानव लोहे के बनाकर
हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर देता,
यदि इन पत्थरों के अंतः दृष्टि ने
आने वाले मानवता के कल को
भलि-भांति समय पर
माप न लिया होता।
</poem>