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नारवा / सुशील द्विवेदी

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''(अष्टभुजा शुक्ल को समर्पित)''

नारवा ! मेरी कविता में तुम हमेशा जिन्दा रहोगी
उस अनभूले स्पर्श की तरह
जिसे तुम गाँव में छोड़ आई थी

इस बार मैं जाऊंगा गाँव
वहाँ से मुठ्ठी भर घास
ले आऊंगा अपनी कविता के लिए
जिस तरह तुम
मुट्ठी भर घास लाती थी अपनी बकरी के लिए l

कुछ मिट्टी खोदूंगा तालाब से
चूल्हा बनाऊंगा,
कुछ कंडे लकड़ियाँ इकठ्ठा करूंगा
अदहन रखूंगा
मेरी कविता में तुम अदहन की तरह खौलोगी l

तुम्हें टोकरी बनाना पसंद था
मैं तुम्हारे लिए कासा काटूँगा
सरपत से बल्ला निकालूँगा
और अगर कहीं मेरा हाथ कट जाये
तुम आना मत
मैं आऊंगा चलकर तुम्हारे पास जैसे तुम आई थी
नारवा! तुम्हारा छूना मेरी कविता को नहर कर देगा l

तुमने कहा था न नारवा!
तुम्हें महुए का गुलगुला पसंद है
मैं जाऊंगा गाँव
और महुए के टपकने का इंतजार करूंगा
जैसे तुम भोर में करती थी
मेरी नारवा! मैं वह सब लाऊंगा अपनी कविता के लिए
जो तुम्हें पसंद है l
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