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{{KKRachna
|रचनाकार=एन सेक्सटन
|अनुवादक=देवेश पथ सारिया
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<poem>
प्रेम-प्रसंग के अंत में हर बार मौत होती है
वह (मेरा शरीर) मेरी कार्यशाला है
फिसलती हुई आँखें,
अपने क़बीले की हद से बाहर
मेरी साँसें तुम्हें गया हुआ पाती हैं
मुझे भय लगता है देहाकांक्षियों से
मैं त्रस्त हो जाती हूँ
रात को, अकेली, मैं बिस्तर से प्रणय रचाती हूँ

उँगली दर उँगली, अब वह (देह) मेरी है
वह बहुत दूर नहीं है
वह छुअन की दूरी पर है
मैं उसे एक घंटी की तरह बजाती हूँ
उस कुंज में जहाँ तुम उस (देह) पर सवार होते थे
मैं झुक जाती हूँ
तुमने मुझे उधार माँगा था फूलों की सेज पर
रात में अकेली मैं बिस्तर से प्रणय रचाती हूँ

मेरे प्रेमी, इस रात को ही लो
जब हर प्रेमी जोड़ा साथ है
एक-दूसरे के ऊपर पड़े हुए वे,
पलटते हुए ऊपर और नीचे
स्पंज और पंखों पर उपस्थित भरपूर
घुटनों के बल झुकते और धक्का देते
सिर से सिर जोड़ते वे
रात में अकेली मैं बिस्तर से प्रणय रचाती हूँ

मैं अपने शरीर से इस तरह मुक्त होती हूँ
मानो एक तकलीफ़देह चमत्कार
क्या मैं सपनों के बाज़ार का पर्दाफ़ाश कर सकती हूँ?
मैं अपनी देह फैला लेती हूँ
मैं सलीब पर चढ़ जाती हूँ
तुमने इसे पुकारा था मेरी नन्ही बेर
रात में अकेली मैं बिस्तर से प्रणय रचाती हूँ

फिर आई काली पुतलियों वाली मेरी प्रतिद्वंद्वी
पानी की स्त्री, किनारे पर उठान भरती
उसकी उँगलियों के पोरों पर है एक पियानो
उसके होंठों पर है शर्मिंदगी
और उसकी वाणी है जैसे बंसरी
और मुड़े हुए घुटनों वाली मैं, एक झाड़ू-सी
रात में अकेली, बिस्तर से प्रणय रचाती हूँ

वह तुम्हें यूँ ले गई
जैसे ख़रीदारी करने आई कोई औरत
छूट वाला माल ले जाती है रैक से
और मैं विखंडित हुई एक पत्थर की तरह
मैं वापस लौटाती हूँ तुमको
तुम्हारी किताबें और मछली पकड़ने का काँटा
आज का अख़बार बताता है
कि तुमने ब्याह रचा लिया है उससे
इधर मैं रचाती हूँ रात में अकेली प्रणय बिस्तर से

आज लड़के और लड़कियाँ एकाकार हो रहे हैं
वे ब्लाउज़ के बटन खोलते हैं और खोलते हैं पतलून की ज़िप
वे जूते उतारते हैं और बत्ती बुझा देते हैं
मद्धिम रोशनी में मौजूद ये लोग सरासर झूठे हैं
वे एक दूसरे का ग्रास बन रहे हैं
वे अघाए हुए लोग हैं
मैं हूँ अकेली, रात को बिस्तर से प्रणय रचा रही हूँ।
</poem>
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