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{{KKRachna
|रचनाकार=एन सेक्सटन
|अनुवादक=देवेश पथ सारिया
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<poem>
लफ़्ज़ मेरा कारोबार हैं‌
लफ़्ज़ होते हैं‌ चिप्पियों की मानिंद
या फिर यूँ कहना बेहतर होगा
कि वे होते हैं मधुमक्खियों के झुंड की तरह
मैं मानती हूँ कि मुझे बुनियादी बातों ने तोड़ा है
जैसे कि लफ़्ज़ों को गिना जाए
अटारी पर मृत पड़ी मधुमक्खियों की तरह
उनकी पीली आँखों और सूखे पंखों को अलग कर दिया जाए
यह मुझे भूल जाना चाहिए हर दफ़ा
कि कैसे एक लफ़्ज़ का सिरा दूसरे से जुड़ता है
कैसे इस तरह दिशाएँ मिलती हैं
जब तक कि मैं ऐसी कोई चीज़ न हासिल कर लूँ
जिसे पाने का मैंने इरादा किया हो…
पर, अस्ल में ऐसा कुछ हुआ नहीं।

तुम्हारा काम मेरे लफ़्ज़ों पर नज़र रखना है
लेकिन मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करने वाली
मैं अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करती हूँ
मसलन, मैं तारीफ़ कर सकती हूँ
उस निकल मशीन की,
जिसमें से नेवाडा में एक रात
तीन घंटियों की टनटन के साथ
जादुई जैकपॉट निकला था
वह उस करामाती स्क्रीन पर प्रकट हुआ था

लेकिन अगर तुम इसे
बताते हो कुछ और
तो मैं कमज़ोर पड़ जाती हूँ
और याद करने लगती हूँ
कि पैसे की कल्पना करते हुए
किस तरह मेरे हाथों ने महसूस किया था—
मज़ेदार, अजीबोग़रीब और भरा-भरा सा।

</poem>
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