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|रचनाकार=शशिकान्त गीते
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|संग्रह=मृगजल के गुंतारे / शशिकान्त गीते
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'''’सच’ के गीत ठोस भाषा में'''

"मृगजल के गुंतारे” सुन्दर, गठीले, विरल और व्यक्तित्व – दीप्त गीतों का संग्रह है. पहला ही गीत कवि की क्षमता को प्रमाणित करता है, इसके अरूढ़ शब्द- प्रयोग गीत को, ‘गीत शिल्प को’ एवं गीतकार को, अपनी परच देते हैं। “खंतर”, “धरती की गहराई”, “ठाँय लुकुम हर अंतर की”, “बीज तमेसर बोए” जैसे प्रयोग लोक-लय का वरण कर गीत - ग्रहण को ललकीला बना सके हैं। संग्रह का “गूलर के फूल” टूटे सपनों का गीत है, पर कसे छन्द और अनुभूति - सिद्ध भाषा से “थूकी भूल” को भूलने नहीं देता। ऐसे कई गीत हैं।

श्री शशिकांत गीते की भाषा ज़िन्दगी से जन्म लेती है। इसी से किसी दूसरे गीत - कवि से मेल नहीं खाती, पर हमारे दिल को भेद देती है। वर्तमान भारतीय लोकतन्त्र जो अविश्वास उत्पन्न करता चल रहा है, वह भी इन गीतों में है, पर ये राजनीति के गीत नहीं हैं। ये समय के सुख - दुःख के गीत हैं। ये “सच” के गीत हैं, ठोस भाषा में। गीतों में समय का संशय और अनिश्चय भी है, पर वे वर्तमान होने की प्रतिज्ञा से बँधे नहीं हैं। आज के ये गीत कल मरेंगे नहीं। ये मात्र समय - बोध के नहीं, आत्मबोध के गीत भी हैं और प्रकृति से सम्बल लेते चलते हैं:-

एक टुकड़ा धूप ने ही
अर्थ मुझको दे दिया
--------------------
शेष है कितना समय
ओह ! मैने क्या किया ? [गीत ४ ]

इन गीतों में शब्द और मुहावरे लाए से नहीं लगते, आए से लगते हैं और ठीक अपनी जगह पर विराज रहे हैं :-

आँगन धूँ-धूँ जलता है पर
चूल्हे की आगी है ठण्डी
सुविधा के व्यापारी, आँखों
आगे मारे जाते डण्डी

इन गीतों में ॠतु-सत्य और जीवन-सत्य की जुगलबन्दी का अपना आकर्षण है। यह शीत - चित्र देंखे :-

थाम धूप की मरियल लाठी
कुबड़ा कुबड़ा चलता दिन

पर इस गीत- कवि की वास्तविक जीवन- दृष्टि इन पंक्तियों में है:-

मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ॠतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना [गीत ८]

इन गीतों में समय की दग्धता लोक- लय की स्निग्धता में गुँथकर विलक्षण हो उठी है। कम गीतकारों में मिल पाती है यह ख़ूबसूरत जुझारू असंगति :-

आँगन में बोल दो
बोल चिरैया ।
जीवन क्या केवल है
धूप, धूल, किरचें
जलती दोपहरी चल
चाँदनी हम सिरजें
आँधियों को तौल
पर खौल चिरैया
आँगन में बोल दो
बोल चिरैया । [गीत १०]

गीतों में जीवनोपलब्ध उपमाएँ हैं अतः सटीक हैं और अपरम्परागत हैं। ये गीतों को तरोताज़ा रखती हैं :-

कटे अपने आप से हम
छिपकली की पूँछ - से [गीत ११]

गीतकार समय की निष्ठुरता, जटिलता और विवशता की धधक में दहकने - झुलसने के बावजूद अपने उल्लास को, अपने छवि - ग्रहण को कायम रख सका है। यह साधारण बात नहीं :-

मेरे आँगन धूप खिली है
दुःख - दर्दों की जड़ें हिली हैं । [गीत १२]

एक विशेष बात यह है कि ये गीत लिजलिजी भावुकता से मुक्त हैं। निश्चय ही बहुत सशक्त गीत- संग्रह है — ’मृगजल के गुंतारे’। इन्हें मेरे शब्दों की ज़रूरत नहीं थी पर शशिकान्त का आग्रह था, अतः यह कुछ मैंने लिखा है। इन गीतों को बार- बार पढ़ते रहने वाले मन से। ये गीत जो जीवन की झुलस में झुलसाते चलते हैं, जीवन की उमंग और हमारे हौसलों को तेज़ व चुस्त- दुरुस्त भी रखते हैं ।

श्रीकांत जोशी
दिनांक- 25- 02- 1994
जवाहरगंज, खण्डवा (म०प्र०) 450001
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