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भात का भूगोल / शिरोमणि महतो

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वे एक हाँक में
दौड़े आते सरपट गौओं की तरह
वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर
मुँह से उ‌फ़्फ़ भी नहीं करते ।

बिलकुल भेड़ों की तरह
वे मन्दिर और मस्ज़िद में
गुरुद्वारे और गिरजाघर में
कोई फ़र्क नहीं समझते
उनके लिए वे देव-थान
आत्मा का स्नानघर होते !

वे उन देव थानों को
बारूद से उड़ाना तो दूर
उस ओर पत्थर भी नहीं फेंक सकते,
वे उन देव थानों को
अपने हाथों से तोड़ना तो दूर
उस ओर ठेप्पा भी नहीं दिखा सकते ।

वे याद नहीं रखते
वेदों की ऋचाएँ / कुरान की आयतें
वे केवल याद रखते हैं
अपने परिवार की कुछेक ज़रूरतें ।

वे दिन भर खटते-खपते है —
तन भर कपड़ा / सर पर छप्पर और पेट भर भात के लिए
वे कभी नहीं चाहते
सत्ता की सेज पर सोना
क्योंकि वे नहीं जानते
राजनीति का व्याकरण
भाषा के भेद
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पहले चावल को
बड़े यत्न से निरखा जाता
फिर धोया जाता स्वच्छ पानी में
तन-मन को धोने की तरह
फिर सनसनाते हुए अधन में
पितरों को नमन करते हुए
डाला जाता है — चावल को
अधन का ताप बढने लगता है
और चावल का रूप-गन्ध बदलने लगता है

लोहे को पिघलना पड़ता है
औजारों में ढलने के लिए
सोने को गलना पड़ता है
ज़ेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानों,
सृजन का प्रस्थान बिन्दु होता है — दुख !
लगभग पौन घण्टा डबकने के बाद
एक भात को दबा कर परखा जाता है
और एक भात से पता चल जाता है
पूरे भात को एक ही साथ होना ।

बड़े यत्न से पसाया जाता है माँड
फिर थोड़ी देर के लिए
आग पर चढा़या जाता है भात को
ताकि लजबज न रहे
आग के कटिबन्ध से होकर
गुज़रता है — भात का भूगोल
तब जाके भरता है —
मानव का पेट — गोल-गोल !
</poem>
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