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09:35, 23 सितम्बर 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजेन्द्र तिवारी
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लहू के दाग़ हैं दिल पर खरोच कैसी है
किसे बतायें ज़माने की सोच, कैसी है
वो जिसकी राह में पलकें बिछाये हैं सब लोग
उसी के, पाँव में आख़िर, ये मोच कैसी है
कहाँ! करील के कुंजों में फूल झरते हैं
हुज़ूर! आपके लहज़े में लोच कैसी है
ज़बान जान लुटाये भले ग़रीबों पर
गवाही काम ही देंगे ‘एप्रोच’ कैसी है
अगर है ध्यान में मंज़िल तो सोचना कैसा
कि ट्रेन कैसी मिली, बर्थ, कोच, कैसी है
</poem>