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|रचनाकार=राजेन्द्र तिवारी
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<poem>
सफ़ेदियों की तहों में छुपा सियाह का खेल
समझ में आने लगा सब जहाँपनाह का खेल

ये दाँव-पेंच, बिसातें, नई-नई चालें
दरअस्ल ये है पियादे से बादशाह का खेल

उसे भरम है कोई और जानता ही नहीं
ज़माना खेल रहा है जो ख़ामख़ाह का खेल

सुबूत सारे गुनहगार कह रहे थे उसे
मगर सज़ा न हुई, हो गया गवाह का खेल

ये क्यारियों का हरापन बहुत ज़रूरी है
जिसे उजाड़ने वाला है ख़ैरख़्वाह का खेल

न जाने कौन सा चेह्रा नज़र को भा जाये
ये इश्क़ होता है प्यारे बस इक निगाह का खेल

जो दिल छुए तो मेरे शे’र को दुआयें दें
यूँ ही न खेलें मेरे साथ वाह-वाह का खेल
</poem>
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