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कतार / शंख घोष / शेष अमित

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<poem>
ज़रा सरको,
ज़रा खिसको
कब से खड़ा हूँ एक ही जगह ।

हे सर्पिणी,
फिसलन में ज़रा हलचल हो !
आदमी, मक्खी, अन्धेरा,
आदमी,मक्खी, अन्धेरा,
जल के साथ धारा सम्मुख ।

चेहरे के सामने,
रौशनी के रू - ब - रू,
आदमी, मक्खी, अन्धकार,
ज़रा फिसलो
ज॒रा सरको !

विसर्पिणी !
ज़रा बढ़ो !

'''मूल बांगला से अनुवाद : शेष अमित'''
</poem>
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