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बन्दी जीवन / शंख घोष / मीता दास

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<poem>
सोचते हो, करुणा माँगी है ?
तुम सब का समर्थन माँगा है ?
ग़लत बात है ये ।

ह्रदय में अनुमोदन के लिए अब कोई इन्तज़ार नही
उसे पता है ग़लतियों की सीमा,
उसे विध्वंस की सूची भी पता है,
वह जान लेता है कि इन हाथों को छूकर
चेहरा हो जायेगा भस्म ।

तब होंगी बातें किसकी ?
किसी के संग नही । यह सिर्फ़ वैसे ही है
जिस तरह बन्दी जीवन को सीने में दबाकर
एक कोठरी में बैठा रहता है ।

दिनों और रातों के चिह्न अंकित कर रख छोड़ता है दीवार पर
उस तरह ही दिनों को गिनकर जाएगी रातों में नोच खाना दिमाग
लोहे में लोहे की ध्वनि जगाना और बजाना विफलता को ।

जो देखता है, वही देखता है सिर्फ़,
एक ही है जो अपने सिर के बालों को खुला छोड़कर
सभी के पिंजर को दबाकर खड़ा है योग्य रस लिए
यह केवल उसी का नाच है वलय में वलय की तरह बुनता

यदि, कह सको इसे ही अच्छा
तो अच्छा है
नही तो नही ।


'''मूल बांग्ला से अनुवाद : मीता दास'''
</poem>
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