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' कोई उम्मीदबर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती ...<ref>अनुवादक ने प्रसंग - अनुकूलता की दृष्टि से ग़ालिब का शेर यहाँ उद्धृत किया है ।</ref>
कभी नहीं अब वह झाग छोड़ते अपने घोड़े की रास कस पाएगा ।
लप - लप् - लप् लहराते हुए शमशीर
और पीछा करते हुए श्वेतरक्षकों का<ref>white guards - सोवियत क्रान्ति के कट्टर दुश्मन और ज़ारशाही के समर्थक फ़ौजी जवान</ref> ।
टापों की टप् - टप् - टप् मद्धिम होती हुई
मद्धिम होते - होते एकदम गुम होती हुई ।
शाम के धुंधलके में गायब होते जाते शहसवार ।
लाल रिसाले के सवार,
आफ़ताबे - सरे - शाम जैसे लाल घोड़े ...
लाल घोड़े ..
घोड़े ...
घोड़ा ...
घोड़ों की सरपट चाल की तरह उसमें ज़िन्दगी कौंधी और ग़ायब हो गई,
नदी जो आहिस्ता - आहिस्ता वह रही थी चुप हो गई आख़िरेकार ।
दिन डूबने के साथ रंग स्याह पड़ते हुए
सवार की आँखों पर एक उदास झिल्ली छाती हुई
अपने सुनहरी बालों को नीचे गिरने देता हुआ बेदमजनूँ ...
ओ बेदमजनूँ, तुम रो तो नहीं रहे
ओह , बेदमजनूँ , कितने तो तुम ख़ूबसूरत,
एक दूसरी को काटती हुई शाखें
पानी पर उदास परछाइयाँ छोड़ रही हैं,
अरे , तुम रो रहे हो,
बेदमजनूँ प्यारे,
मत रोओ ! मत रोओ !!
 
[1928]
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
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