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पाब्लो नेरुदा (12 जुलाई 1904 - 21 सितम्बर 1973) की मृत्यु हुए तीन दशक से अधिक हो गए । उनकी रहस्यमय - सी मृत्यु पर हिन्दी दुनिया में विशेष चर्चा नहीं हुई। शायद इसलिए कि उससे कुछ ही पहले नेरूदा को नोबेल पुरस्कार मिलने पर उनके पक्ष - विपक्ष में थोड़ा - बहुत लिखा जा चुका था और उनके कुछ संग्रह भी दूकानों पर नज़र आए थे । लेकिन राष्ट्रपति आयेंदे की हत्या, फौजी तानाशाही की स्थापना और स्पेन की ही तरह चीले की सड़कों पर भी आग, बारूद और शिशुओं का रक्त बहने के उस दौर में जब एक बड़े मानवीय स्वप्न का अन्त हो रहा था, चीले की जनता और पश्चिम की बौद्धिक दुनिया को नेरुदा की याद थी । इसीलिए जनरल पीनोशे को यह कहने का पाखण्ड करना पड़ा कि 'नेरूदा अगर मरे तो उनकी स्वाभाविक मृत्यु होगी’ । अब भी कहा नहीं जा सकता कि उनकी मृत्यु, चीले के तानाशाहों के अनुसार , कैंसर से हुई या फिर चीले क जनता के उस स्वप्न के समाप्त हो जाने से हुई, नेरूदा की कविताएँ जिसका एक अभिन्न अंश थीं । आख़िर, नेरूदा को दफ़नाते समय क़ब्रगाह में खड़े हज़ारों लोगों ने उस बर्बरता में भी फ़ासिज्म - विरोधी नारे लगाए ।
नेरूदा से रीता लेवेत की यह बातचीत इस दृष्टि से काफी काफ़ी पुरानी है । नोबेल पुरस्कार से भी पहले की, जब नेरूदा चीले के राष्ट्रपति पद के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे । बाद में नेरूदा ने अपने निर्दलीय मार्क्सवादी मित्र साल्वादोर आयेंदे के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया था; आयेंदे के राष्ट्रपति होने पर नेरूदा फ्रांस में राजदूत नियुक्त किए गए । इस बातचीत का रोनाल्ड क्राइस्ट द्वारा किया गया अँग्रेज़ी अनुवाद 1971 में पेरिस रिव्यू ' के अंक 51 में प्रकाशित हुआ था ।
यह बातचीत कई चीज़ों के बारे में है और नेरूदा की कविता से अधिक उनके कविता - सम्बन्धी आग्रहों और तत्कालीन साहित्यिकता के प्रति उनके रवैयों को सामने रखती है । विस्तार - भय से वार्त्तालाप को कहीं - कहीं काटा भी गया है मसलन , जासूसी उपन्यासों को पसंद करने की बात । लेकिन वे सभी बातें रहने दी गई हैं जो आज भी किसी - न - किसी रूप में प्रासंगिक और शिक्षाप्रद लगती हैं ।
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