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रिसन / दीप्ति पाण्डेय

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परदे के पीछे का दृश्य हूँ
क्या करुँ, विषय ही गौण हूँ

असफलताओं ने जितना माँजा नहीं
उतना कुरेद दिया
गहरे घावों की रिसन हूँ

अनेकानेक बार विकल्पों ने साँकल बजाई
लेकिन कहीं गहरे
एक संकल्प दुबका बैठा था
खाली बियावान में एक माली
इकलौते बीज को सहेजे बैठा था
लेकिन,
दुश्चिन्ताओं ने बीज रोपने ना दिया
अपार सम्भावनाओं के द्वार पर,
पूर्ण विराम खड़ा था
मानो सब कुछ पहले से ही तय था

गिरने उठने के सतत क्रम में
सँभलने का समय भी बहुत कम था
जैसे परीक्षक समय पूर्व ही कॉपी छीन ले
और पासिंग मार्क्स के लिए अनिवार्य प्रश्न
किसी फ्लो चार्ट में सिमटकर रह जाए
डर से, हाँ डर से
पूरे शरीर में बिजली कौँध जाए
अब क्या होगा?
दया, मौका पाकर पसर जाती
भीतर ही भीतर कोसती और समझाती
चुन लेना था न - विकल्प

दया,
हाँ, खुद पर दया
लाचारी का लगभग अंतिम रूप है
</poem>
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