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<poem>
अभी रह गए हैं अछूते
कई मेरियाना गर्त
अपनी ही आत्मानुभूती के
और अधूरे उत्तर अपने ही प्रश्नों के

अभी मौन सध नहीं रहा
रह- रह बेचैनी होती है
अपनी पीड़ा को
अन्य की संवेदना से जोड़ने की

अभी पुल कच्चा है शायद
जो बीच भँवर में भरभराकर ढह सकता है
परम विश्वास पर भी
एक प्रश्नवाचक कील ठोक सकता है

दुनिया का कैसा समीकरण है
जिसमें मैं नदारद हूँ
और दुनिया मुझमे भिदी पड़ी है
यही प्रश्न दीमक सा चाटता है -मेरा निज
एक शोर अनवरत बजता है एकाकीपन में
और मैं कानों को ढाँप लेती हूँ दोनों हथेलियों से

कैसे निकलना होगा
कुंठाओं के इन बहुपाश से ?
कि खुद से कह लूँ अपनी चिंता
और मुक्त हो सकूँ उधारी की संवेदनाओं से
कि स्व से मिलकर पूर्णता पा लूँ
और अपने अस्तित्व का लोक गीत
समवेत स्वर में गा लूँ
गरल भर कर निज कंठ में मुस्कुराऊँ
कि मैं जिन्दा हूँ
अपने ही संरक्षण में

जाने कब पूर्ण विराम की टेक से
ये थकान सुस्ताएगी जी भर
लेकिन
अभी यात्रा अधूरी है प्रिय
और मैं ?
हाँ! मैं भी अधूरी
</poem>
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