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23:59, 18 नवम्बर 2022
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<poem>
अंदर
तक थर्राई थी,
वो खुश थी,
या घबराई थी?
शायद भूडोल
का कारण
आज जान पाई थी!
संवेदनाओं का तरल
कहीं अनंत
गहरे आत्म-पातल में
दबा होता है,
कई परतों के मोटे
आवरणों तले
छिपा होता है,
कोई भेद जाता है,
अपने अगाध
प्रेम चुम्बित
स्पर्श से और
कर जाता है
समस्त अभिव्यक्तियों
को अवाक्..
तरल की हलचल
फिर किसी
तूफानी समन्दर
से होती नही कम
डोल जाता है भूगर्भ,
फट पड़ती है
ऊपरी सतह लिये गहरी फाँक,
नही पता खुश थी? या
घबराई थी?
पातल की गहराइयों
से बाह्य तक
'वो'
किसी भूडोल की
चपेट में आई थी..
होता है कोई
'अतिविशिष्ट' जो
पातल के तरल
तक को देख
पाता है,
सामान्य को तो
अचला का आँचल ही
नज़र आता है..
शायद अपने
गर्भीय रहस्यों को
उसके मुख से
सुन तनिक नही,
अधिक भावुक
हो आई थी,
पातल की गहराइयों
से बाहर तक
भूडोल की
चपेट में आई थी।
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