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{{KKRachna
|रचनाकार=अहमद फ़राज़
|संग्रह=खानाबदोश / फ़राज़
}}
[[Category:ग़ज़ल]]

अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और<br>
उस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और<br><br>
रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते<br>
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और<br><br>
हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा<br>
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और<br><br>
राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को<br>
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और<br><br>
गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी<br>
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और<br><br>
उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे<br>
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और<br><br>

'''कू-ए-मलामत''' - ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो<br>
'''खुर्शीद''' - सूर्य, '''रंज''' - तकलीफ़, '''गमतलब'''- दुख पसन्द करने वाले<br>
'''तर्के-तअल्लुक''' - व्श्ति टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)<br>
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