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04:19, 18 दिसम्बर 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
|अनुवादक=
|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
}}
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<poem>
एक भूखा समुद्र था
हर क्षण गरजता
पछाड़ें खाता हुआ
कहते हैं कभी एक भूखा समुद्र था
बड़ी-बड़ी नदियों को चूसकर (पैरों से)
फेंकता था क्रुद्ध हो
खारे जल की पहाड़ियाँ
रेत और स्वादहीन फेन के
कटीले झंखार |
यों हुआ कि एक दिन धरती को तोड़कर
एक बहुत दुबली-सी चंदन धुली हुई
अलसायी धार
आकर समुद्र की बाँहों में सो गई।
धारा तो खो गई
पर उस समुद्र की
बूँद-बूँद शहदीली हो गई
कहते हैं कभी एक भूखा समुद्र था।
</poem>