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{{KKRachna
|रचनाकार=कैलाश वाजपेयी
|अनुवादक=
|संग्रह=संक्रांत / कैलाश वाजपेयी
}}
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<poem>
भीतर कहीं
सफ़ेद होंठ
पीली आँखें
मुरदा बाँहें
अब रह-रह कर चिल्लाती हैं-
जिंदा रहने के लिए-
प्यार से कोई बड़ा झूठ बोलो
ज़िंदा रहने के लिए
अश्रु से ज़्यादा अच्छा ढोंग रचो
ईश्वर-सा उजला
लेकिन बेकार शब्द,
गढ़कर उगलो

मैं लज्जित हूँ ।
क्योंकि प्यार से बड़ा झूठ
अब तक बोला ही नहीं गया
आँसू से ज़्यादा अच्छा नाटक
खेला ही नहीं गया
ईश्वर सा खोखला शब्द
दोबारा उगला नहीं गया।
</poem>