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नील कुवलय -से
तुम्हारे
ये अधमुँदे नयन
कितने पावन
बुनते सपन।
डूबे मदिर
कल्पना के रंग में
और गहरी झील -सा
अपना यह मन ।
 
भोर की स्वर्ण किरनें
लगीं मुख चूमने,
आज फिर भी
ये नयन हैं अनमने।
 
लहर -सुधियाँ
कई जन्मों से जुड़ीं
रूप का कर रही
अनवरत आचमन ।
 
फिर जनम
मिला हमें
तो फिर मिलेंगे ,
अधखिले ये कमल
फिर-फिर खिलेंगे।
 
भूल नहीं पाया
अभी तक
उर यह आकुल
मृदु स्पर्श
तरल स्मित की चितवन।
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