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<poem>
मिलते तो मुँह पर सब हँसकर महफ़िल में
कैसे जानें, क्या है, कब, किसके दिल में

लगता था ऊँचे घर का पहनावे से
बोला ज्यों ही बदला वो फिर जाहिल में

दो क़दमों पर थककर यूँ रुकने वाले
दूरी काफ़ी बाक़ी अब भी मंज़िल में

ख़ंजर घोंपा उसने तो हैरानी क्यों
अक्सर अपने ही होते हैं क़ातिल में

लहरें आयीं, छूकर वापस लौट गयीं
कोई रूखापन था शायद साहिल में
</poem>
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