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<poem>
बिना नमक की सब्जी-सा
था फीका-फीका दिन
मीत तुम्हारे बिन

मन का मानसरोवर गुमसुम
चुप-चुप था ठहरा
लहरों की आवाजाही पर
नींदों का पहरा
नहीं चली पुरवाई कोई
पेड़ नहीं झूमा
बिना तुम्हारे मुस्कानों ने
ज्यों पारा चूमा
घड़ियों की भी चाल हुई थी
नव दुल्हन जैसी
बढ़ती सुइयाँ आगे हौले-हौले
पग गिन-गिन
मीत तुम्हारे बिन

बिना तुम्हारे मन-मरुथल में
उड़ती थी रेती
मुरझाईं खुशियाँ जैसे बिन
पानी के खेती
बिन पंछी के जैसे सूना-सूना
पड़ा गगन
बिना तितलियों के जैसे फूलों
वाला उपवन
चाहा काम करूँ कुछ लेकिन
मन ही नहीं लगा
चुभा रही थीं यादें भी रह-रह
कर मुझको पिन
मीत तुम्हारे बिन

कोई स्वाद नहीं था जैसे
कोई रंग नहीं
अँधियारे जंगल में जैसे
कोई संग नहीं
कुहरे वाले दिन में जैसी
होती हैं गलियाँ
जेठ महीने में जैसे
दुबलाती हैं नदियाँ
एक उदासी बादल बनकर
मेरे साथ रही
बिन काजल के बैठी थीं ये
आँखें बंजारिन
मीत तुम्हारे बिन
</poem>
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