1,218 bytes added,
12:30, 9 जनवरी 2023 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामकुमार कृषक
|अनुवादक=
|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
गाँव से आना
न बन पाना सही शहरी
हमें पिछड़ा गया है !
ये शहर
ये सभ्यता
आकाश बैठी ये बुलन्दी
छोड़कर खलिहान
राशन-रोटियों की भूख बन्दी !
अब नहीं
पैबन्द-पर-पैबन्द लगते
ज़िन्दगी का यह लबादा
इस तरह चिथड़ा गया है !
ये बहर
अँगरेज़ियत ये
अर्थकामी उड़नदस्ते
मोलते महँगाइयों को
हो रहे ख़ुद ख़ूब सस्ते !
अब नहीं
सम्बन्ध-पर-सम्बन्ध जुटते
बन्दगी से आदमी को
इस तरह बिछड़ा गया है !
7-11-1976
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader