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11:53, 12 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अहमद फ़राज़
|संग्रह=खानाबदोश / फ़राज़
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं<br>
मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं<br><br>
जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के सब<br>
एक पल के लिये रुकते हैं गुजर जाते हैं<br><br>
साकिया तूने तो मयखाने का ये हाल किया<br>
रिन्द अब मोहतसिबे-शहर के गुण गाते हैं<br><br>
ताना-ए-नशा ना दो सबको कि कुछ सोख्त-जाँ<br>
शिद्दते-तिश्नालबी से भी बहक जाते हैं<br><br>
जैसे तजदीदे-तअल्लुक की भी रुत हो कोई<br>
ज़ख्म भरते हैं तो गम-ख्वार भी आ जाते हैं<br><br>
एहतियात अहले-मोहब्बत कि इसी शहर में लोग<br>
गुल-बदस्त आते हैं और पा-ब-रसन जाते हैं<br><br>
'''मोहतसिबे-शहर''' - धर्माधिकारी, '''सोख्त-जाँ''' - दिल जले<br>
'''शिद्दते-तिश्नालबी''' - प्यास की अधिकता, '''तजदीदे-तअल्लुक''' - रिश्तों का नवीनीकरण<br>
'''गम-ख्वार''' - गम देने वाले<br>