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02:07, 23 फ़रवरी 2023 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुरेश सलिल
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
उभर-उभरकर आ रहे हैं
मन में अनगिन चित्र
बतलाना मुश्किल बहुत
कैसे हैं वे, मित्र !
उनमें है नदी की कलकल
चाँदी-सी लहरों की झलमल
कौंध और नावों का नर्तन
जल पर पालों का आवर्तन
हुए स्वप्नवत् आजकल
वे सब के सब चित्र
नदी भूमिगत हो गई
स्मृति बची है, मित्र !
</poem>