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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
गमों का साया घनेरा है हम किधर जाएँ
अभी तो दूर सवेरा है हम किधर जाएँ

सभी ने फेर ली नज़रें ज़माना दुश्मन है
हर एक शख्स लुटेरा है हम किधर जाएँ

उठी हैं काली घटा बिजलियाँ चमकती हैं
कि शाख़े गुल पे बसेरा है हम किधर जाएँ

मिटा रहें हैं हमें अहले गुलसितां अफसोस
इसी चमन मे बसेरा है हम किधर जाएँ

नशा चढ़ेगा अभी और ज़ुल्म का मूसा
अभी तो दूर सवेरा है हम किधर जाएँ
</poem>