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11:59, 28 फ़रवरी 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
इक आग लगाई जाती है इक आग बुझाई जाती है
साक़ी तेरे मयखाने में यूँ प्यास बुझाई जाती है
पी-पी के बहकना पड़ता है पीने का सलीक़ा सीख लो तुम
अक़्सर तो ज़माने में ठोकर दानिस्ता खाई जाती है
वो दौर गया जब मक़तल में पानी भी पिलाया जाता था
अब प्यास बुझाने के ख़ातिर तलवार चलाई जाती है
पहले तो नशेमन की ख़ातिर देते हैं शाख शज़र लेकिन
बर्बाद नशेमन करने को फ़िर बर्क़ गिराई जाती है
ज़ुल्मत को मिटाना है ये तो दरअस्ल बहाना है यारों
परवाने जलें ये सोच के ही अब शम्आ जलाई जाती है
हो ताबे नज़ारा जिसको भी वह जाए जहाँ 'मूसा' थे गए
वह बर्क़ कि जिसकी चाहत है बस तूर पे पाई जाती है
</poem>