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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
रहते हो सदा पास मेरे क़लबो ज़िगर में
चेहरा है तुम्हारा ही सनम मेरी नज़र में

होते नही तुम ख्वाब में भी मुझसे जुदा यार
तुम साथ मेरे चलते हो यादों के सफर में

प्यासी है नज़र सब तेरे दीदार को मेरी
बैठा हूँ सनम कब से तेरी राह गुज़र में

अब डूब के देंखेंगे समंदर की तहों में
कश्ती को उतारा है तभी हमने भवँर में

मूसा मेरे महबूब के चेहरे का हँसी अक़्स
आता है नज़र सारे ज़माने को क़मर में
</poem>