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एक अवांतर कथा / राहुल द्विवेदी

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<poem>
खामोश स्याह रातों में
वह तलाशता है रोशनी-
(जो है एक मिथक उसकी जिंदगी में)
दिन भर की भागमभाग और
उसके बाद तनहा उदास शाम,
रोज़मर्रा की जिन्दगी में कुछ भी नया नहीं
है तो सिर्फ इतना कि,
तनाव भरे इन गहनतम क्षणों में
आज भी याद आते हैं उसे
बचपन के वो दिन...

कितना कुछ अच्छा था...
जबकि गरीबी अपना फन फैलाये
अक्सर ही लीलने की कोशिश में थी
तब भी उन दिनों,
हँसने के पर्याप्त मौके थे…
बरसात के वो क्षण—
लगभग हर कोने से टपकते हुए छप्पर में
अपने आपको बचाने का रोमांच
आज भी सिहरन पैदा कर देती है उसमें...

हाड़ कंपाती ठण्ड में–
एक ही चीथड़े में छुप कर,
घुटनों को सीने से सटाकर,
गर्मी लाने का सुख,
कंक्रीटों के बियाबानों में आज
नहीं नसीब हो पाता है उसे...

गर्मी की तपती दुपहरियों में,
घर के पिछवारे बैठ
सूनी लम्बी कच्ची सड़कों को
लगातार तकते रहना...
और फिर,
धूल के गुबारों के बीच आती सिगड़ी में
अपने किसी एक की झलक से
उत्पन्न हुए उत्साह को,
वह आज भी तलाशता रहता है
लगातार...

वह ढूंढता रहता है अक्सर...
उन न ख़त्म हो पाने वाले अभावों को–
जो उसे बचपन से विरासत में मिली थी
और जिनमे मौजूद जिंदगी की ललक
करती थी मज़बूर...
उसे ज़िंदा रहने के लिए--

आज—
जबकि वो सबकुछ है उसके पास
जो कभी चाँद तारे थे उसके लिए शायद...
फिर भी उसकी रातें,
पहले से ज्यादा हैं
भयावह तनहा और उदास...
जिनमें तलाशता रहता है वह
अनवरत...
जिन्दगी की मुख्य कथा से
जुड़े न मालूम कितने क्षेपक कथाओं को,
जिनमें शामिल हैं-
न ख़त्म होने वाले दुःख,
और उन दुखों में
छुपे हुए सुख...
जिन्हें बचपन की गलियों में
वह कहीं छोड़ आया है...
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