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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रमोद शर्मा 'असर'
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<poem>
अपनी करनी का फ़क़त इन को सिला दे जाएँगे,
सोचिए हम नस्ले-नौ को और क्या दे जाएँगे।

शक्ल-ओ-सूरत ही नहीं, किरदार भी दिखलाए जो,
हम विरासत में तुम्हे वो आईना दे जाएँगे ।

याद आए जो हमारी, ढूँढ लेना इनमें तुम,
जाते-जाते हम तुम्हें कुछ नक़्शे-पा दे जाएँगे।

गर हमें मौक़ा मिला नेकी-बदी की जंग में,
सब रखेंगे याद हम वो फ़ैस्ला दे जाएँगे ।

उसके दम पर है सफ़ीना तू ज़रीआ है फ़क़त,
तज्रिबे तुझको सबक़ ये नाख़ुदा दे जाएँगे।

लौट कर तो आ नहीं पाएँगे करने को मदद,
कामयाबी की तुम्हें पर हम दुआ दे जाएँगे ।

तंगदस्ती में भी सर ख़म हो न पाया दोस्तो!
मुफ़्लिसी को भी 'असर' हम मर्तबा दे जाएँगे ।
</poem>