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{{KKRachna
|रचनाकार=व्लदीमिर मयकोव्स्की
|अनुवादक=हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
इंक़लाब के पैरों से तुम रौन्दो तो मैदानों को,
गर्वित शृंग शिखर-सी रक्खो पेशानी को, शानों को;
एक नया सैलाब उठाने हम दुनिया में आते हैं,
देखो कैसे इसमें जग के सब घर-नगर नहाते हैं !

रंग-बिरंगी सुबह, शाम, दिन, रातों की घड़ियाँ जातीं,
एक-दूसरे से जुड़-जुड़कर वर्षों की कड़ियाँ जातीं,
गति ही एक हमारी देवी, उसके उग्र उपासक हम,
सीने में रणभेरी बजती, हम फिर कैसे सकते थम !

हम कुन्दन के ढले, हमारी आभा-विभा निराली है,
हमें नहीं डर इसका हम पर आग बरसनेवाली है,
नहीं हमारे गीतों से मजबूत कहीं हथियार बने,
दिशा-दिशा से गुंजित नारे हम पर बनकर ढाल तने !

हिम से ढकी हुई धरती के ऊपर फिर से घास उगी,
जमकर प्रकृति गई थी सो जो, सो लेने पर पुनः जगी,
इन्द्रचाप चमका सतरंगा, गंगा चमकी अम्बर की,
लाल चौकड़ी मार चले पर डिगी लगन अब अन्तर की !

नारों का मत करो भरोसा, वे तो हैं जड़-भीत सभी,
उनके बिना नहीं रुकने का क्रान्ति-कण्ठ का गीत कभी;
ज्योतिपुत्र हम ज्योतिर्मय नभ से केवल इतना चाहें,
हमें रहें आमन्त्रित करती नव-नक्षत्रों की राहें !

मस्ती का मधु पियो, लगाओ पीकर जोशीले नारे,
ख़ून जवानी का नस-नस में दौड़े औ’ लहरें मारे,
चढ़ें हौंसले आसमान पर औ’ ज़मीन पर बढ़ें क़दम,
छाती की धड़कन में बजता लौह दमामा हो हरदम ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंशराय बच्चन'''
</poem>
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