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15:06, 24 अप्रैल 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवि सिन्हा
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<poem>
क्या पूछते हैं दौर क्यूँ अफ़्सुर्दगी का है
आज़ार इश्क़ का तो दिया आप ही का है
वसलत की रात थी तो गिला आगही से था
फ़ुरक़त की रात है तो गिला आगही का है
जगमग शहर हुजूम की आँखों में झाँकिए
अब तीरगी को ख़ौफ़ कहाँ रौशनी का है
बौने दरख़्त हैं यहाँ नस्लें भी नातवाँ
मिट्टी में कसर है कि हुनर आदमी का है
सूखी नदी के सामने पत्थर के देव हैं
रक़्साँ हुजूम भी है मगर किस सदी का है
पुरखे जो बुत-कदे में मिले तो लगा हमें
अपनी रगों में ख़ून किसी अजनबी का है
राहत के साथ आप जनाज़े में हैं शरीक
तस्दीक़ हो गई कि जनाज़ा उसी का है
'''शब्दार्थ :'''
अफ़्सुर्दगी – उदासी (depression),
आज़ार – रोग (disease),
वसलत – मिलन (meeting the beloved),
आगही – चेतना (awareness),
फुरक़त – वियोग (separation from the beloved),
तीरगी – अन्धेरा (darkness),
नातवाँ – कमज़ोर (weak),
रक़्साँ – नाचता हुआ (dancing),
बुतकदा – मूर्त्तियों का घर यानी मन्दिर (an idol-temple),
तस्दीक़ – प्रमाणित (proven)
</poem>