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|रचनाकार=रुचि बहुगुणा उनियाल
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<poem>
ईश्वर तुम आत्महत्या कर लो अब
सही वक्त पर तुम्हारे अस्तित्व का
समाप्त हो जाना ही अच्छा है
अपने झूठे मुखौटे को हटाओ
और कर लो स्वीकार
कि सिसकते हो तुम भी!

यदि ये दुनिया तुम्हारे लिए खेल है
तो तुम्हें नहीं लगता?
कि खेल एकतरफ़ा होता जा रहा है
कि कमज़ोर के आँसुओं से अब
तुम्हारी सत्ता डिगने की कगार पर है?

इससे पहले कि कमज़ोर,
जिसकी प्रार्थनाएँ तुम्हारे वज़ूद को बचाए हुए हैं,
उतार दे तुम्हें सिंहासन से तंग आकर
नकार दे तुम्हारा ईश्वर होना
उजाड़ दे तुम्हारे बड़े-बड़े मंदिरों का अस्तित्व
और तुम्हारी ईश्वर होने की नौकरी से तुम्हें बेदखल कर दे
तुम आत्महत्या कर लो!

सुना है कि तुम्हें धरती पर
सबसे अधिक प्रिय बच्चों की मुस्कानें हैं
कि चिड़ियों की चहचहाहट तुम्हारा संगीत है
कि तुम तितली के पंखों के रंग से करते हो श्रृंगार
कि तुम प्रेम की भाषा समझते हो
तो क्यों नहीं देते सज़ा?
उन्हें जो बच्चों का बचपन उजाड़ देते हैं
जो चिड़ियों के पंख कतर देते हैं
जो तितलियों के रंगीन परों को मसल देते हैं
जो भय, नफ़रत, हथियारों की भाषा सिखा रहे हैं!

बुढ़ा गए हो तुम ईश्वर
अब तुम घर के बाहर देहरी पर बैठे
बुजुर्ग माँ -बाप की तरह लाचार हो
जिसे कभी भी उनकी संतानें
भेज सकती हैं वृद्धाश्रम!
तुम झूठी हंसी के पीछे ठीक वैसे ही
छुपा रहे हो अपने आँसू
जैसे कोई कलाकार अपने चेहरे पर
पोत लेता है कई परतें श्रृंगार की!

असल में ये दुनिया अब वैसी रह नहीं गयी
जैसी तुमने बनाई थी
इसलिए...
कमज़ोर बेबस तुम्हारे वज़ूद को
नकार दे उसके पहले
तुम आत्महत्या कर लो ईश्वर!
</poem>
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