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|रचनाकार=रुचि बहुगुणा उनियाल
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<poem>
जन्मदिन पास आने पर
अक़्सर ही आने लगते हैं पिता सपनों में
मुझे कई-कई बातें समझाते हुए... लाड़ से दुलारते पिता
स्वप्न में भी महसूस कर लेती हूँ
पिता के स्नेहिल स्पर्श को

उनके इस संसार से जाने के बाद
कितने ही महीनों तक
कान किसी और आवाज़ को सुनने से इंकार करते रहे थे
मैं उनके स्वर को ही उनका स्पर्श मान
अपनी आत्मा को फुसलाती /दुलारती /थपकी देकर सुलाने का प्रयास करती रहती

छुटपन में जब भी कोई डांटता पिता होते मुझे संभाल लेने के लिए
माँ की डांट से बचने , भाईयों से झगड़े में जीतने
और मेरी हर ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए
पिता की ओर देखती तो वो मुस्कुरा के मेरी हर इच्छा पूरी करते।

अचानक दुनिया छोड़ गए पिताओं की आत्मा जानती है
कि दूर किसी पहाड़ पर सर्दियों की आहट होते ही
उनकी लाड़ली 'चखुली' का जन्मदिन आने वाला है

खिलने वाला है हरसिंगार जो उनकी लाड़ली का पसंदीदा है

उन दिनों में पिताओं की आत्मा पितृ पक्ष का नियम तोड़ती है
आते हैं पिता रोजाना सपने में अपनी 'पोथली' के!

अपने बच्चों के पिता को घर लौटते देखती हूँ
तो जैसे अपने पिता से होता है मिलना फिर-फिर

पति जब अपनी जेबों से निकालते हैं बच्चों के लिए लायी टॉफियां
बरबस ही पिता आकर सामने खड़े हो जाते हैं
पति से छुपी नहीं है ये बात कि बिना पिता की बेटी को अधिक प्रेम की आवश्यकता होती है

मैं रोजाना से अधिक उत्साह से देती हूँ पति को पानी का गिलास
चाहती हूँ लौटते रहें सब बेटियों के पिता
शाम ढलते ही अपनी बच्चियों के पास
ताकि उन्हें पिता से मिलने के लिए सपने का इंतज़ार न करना पड़े!</poem>
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