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01:16, 2 मई 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= भारतेन्दु मिश्र
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
रोटियों सी गोल है दुनिया
और हम मज़दूर होते हैं
देह अपनी बाँटते हैं हम
और थककर चूर होते हैं ।
पढ़ न पाए हम गरीबी में
बढ़ न पाए बदनसीबी में
शोषकों की दृष्टि में तो हम
नाक का नासूर होते हैं ।
गालियाँ भी लोग देते हैं
हाथ, बस, हम जोड़ लेते हैं
क्या पता तुमको कि हम भी
किस कदर मजबूर होते हैं ।
जब मशीनों पर उतरते हैं
काम जोखिम भरे करते हैं
मौत की ही चीख सुनते हम
ज़िन्दगी से दूर होते हैं ।
(पारो-18/6/1989)
</poem>