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|रचनाकार=लिण्डा पास्टन
|अनुवादक=रंजना
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<poem>
शायद वे मई के शुरुआती दिन थे
बकाइन और बोगनविलिया से भरी झाड़ियों का एक लम्हा
जब कई वायदे किए जा सकते हों
यह कोई मायने नहीं रखता कि बाद में वे तोड़ दिए जाएँ

मेरे माता-पिता मण्डराते हुए आसपास थे, पृष्ठभूमि में
उन घरों के दृश्य का हिस्सा, जिनमें मैं बड़ी हुई
अगरचे वे बाद में नष्ट हो जाएँगे यह मैं जानती थी मगर मानती न थी

हमारे बच्चे सो रहे थे या खेलने में मशगूल
सबसे छोटा नन्हे से बकाईन के फूल की महक-सा
भला, मैं कैसे जानती कि इनकी जड़ें गहरी नहीं
ये कहीं और रोप दिए जाएँगे

मुझे आभास भी नहीं था कि मैं खुश थी
छोटी मोटी झल्लाहटें मानो तरबूज पर नमक
जिनपर मेरा ध्यान अक्सर चला जाता
सच तो यह था कि वही फल को अधिक स्वाद से भर देते

तो हम ठण्डी सुबहों में बारामदे में बैठते, गर्म कॉफ़ी पीते
दिन की ख़बरों का पीछा करते
हड़ताल और छोटी मोटी झड़पें, कहीं लगी आग
मैं तुम्हारे सर का ऊपरी हिस्सा देख सकती थी, आगजनी के बारे न सोचते
कि वह मेरे अनावृत कंधों पर कैसा महसूस होगा

अगर कोई कैमरे को उस क्षण रोक देता
कोई अगर कैमरे को उसी क्षण रोक देता और पूछता, क्या तुम खुश हो ?
शायद मैंने ध्यान दिया होता कि सुबह बकाईन के फूलों के रंग को कैसी छटा दे रही है
हाँ, मैने जवाब दिया होता
और भाप उठती कॉफ़ी का प्याला उसे पेश किया होता..
</poem>
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