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घर / मीता दास

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अब घरों में घर नहीं रहते ,
रहते हैं काठ के पलंग, आरामदेह सोफा, कुशन दार
नर्म फ़र वाले सॉफ्ट टॉय पलंगपोश, कसीदेदार
झालरदार पर्दों के पीछे लटकते ऊपर या किनारे खींचने वाली
डोरियाँ घिर्रीदार... पर खींचते कभी नहीं, न ऊपर न किनारे
जाने क्या हो जायेगा उजागर ऐसा करने से
घर है तो !
पर अब घरों में घर नहीं रहते.....

कुर्सी अंटा रहता है बेतरतीब कुछ साफ़-मैले उतरनो से
घर के पुराने आसबाब टकरा जाते हैं
बेतरतीब तरीकों से ठेंगा दिखाते
दीवारें भी सजी मिलती हैं कभी-कभी
पुराने से चेहरों से
चेहरे टंगे मिलते हैं दीमक खाये फ्रेमों में.....

नए चेहरे अब घरों में नहीं
कॉरपोरेटों के जाल में या सोशल साइटों में अंटे मिलते हैं
सूट-बूट , टाई में कभी-कभी झांक लेते हैं
ऐतिहासिक मीनारों या किलों की ओर
पर वे घरों में झांक ही नहीं पाते
समय चूक जाता है हमेशा ही
उनकी सूची से।
</poem>
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