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14:48, 13 जुलाई 2023 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अनीता सैनी
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<poem>
ऐसा नहीं है कि
बहुत पहले पढ़ना नहीं आता था उसे
उस वक़्त भी पढ़ती थी
वह सब कुछ जो कोई नहीं पढ़ पाता था
बुजुर्गों का जोड़ों से जकड़ा दर्द
उनका बेवजह पुकारना
समय की भीत पर आई सीलन
सीलन से बने भित्ति-चित्रों को
पिता की ख़ामोशी में छिपे शब्द
माँ की व्यस्तता में बहते भाव
भाई-बहनों की अपेक्षाएँ
वर्दी के लिबास में अलगनी पर टँगा प्रेम
उस समय जिंदा थी वह
स्वर था उसमें
हवा और पानी की तरह
बहुत दूर तक सुनाई देता था
ज़िंदा हवाएँ बहुधा अखरती हैं
परंतु तब वह प्रायः बोलती थी
गाती - गुनगुनाती
सभी को सुनाती थी
पसंद-नापसंद के क़िस्से
क्या सोचती है
उसकी इच्छाएँ क्या हैं?
जिद करती थी खुद से
रूठे सपनों को मनाने की
अब भी पढ़ती है
निस्वार्थ भाव से स्वतः पढ़ा जाता है।
आँखें बंद करने पर भी पढ़ा जाता है
परंतु अब वह बोलती नहीं है।
</poem>