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स्त्री / दीपा मिश्रा

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<poem>
ओकर अयबाक
आहट नै होइये
ओकरा पकड़ब सेहो कठिन
ने कियो देखैये
आ ने ओ कोनो अपन
चिन्ह छोड़ैये
ओ नै बुझैये मान मर्यादा
लक्ष्मणक खींचल
रेखाकेँ कोनो औचित्य
ओकर आकर्षण मात्र
ओ सुगंध रहैत छैक
जे शरीरक कोनो ग्रंथिसँ
उकसाओल जाइत छैक
मोनसँ अपाहिज
उन्मत्त मात्र रहैये
अपन कामुकतामे
घोघ, परदा, झाँप,
टाप,सरकी,ओहार
सबटा ओकरे डरसँ
अपनाओल गेल
डर होइत छल
कहीं खटाँसकेँ
नजरिमे नै आबि जाए
कियाक त' खटांँस
खाली जंगले टामे
नै होइत छल
खँटास अहुखन अछि
ओ मुखौटा पहिरने
सबठाम भेट जायत
जहिया एहि खटाँस सबहक
मुँह उघाड़ हुए लागत
बुझु तहिये
बरजोरिक अंतिम केस
पुलिसमे दर्ज होयत
आर ओकर बाद
बेटी लेल नै चिंतित रहत
कोनो पिता
आने रहत असुरक्षित
कोनो अंगना
आवश्यकता नहि रहत
कोनो घोघ, पर्दा, ओहारक
कियाक त' लाज
आँखिमे रहब बेसी आवश्यक
</poem>
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